आविष्कार संस्था में पिछले दो माह काफी कुछ सीखते हुए बीते। न केवल शिक्षा के क्षेत्र में बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी। विज्ञान, गणित को  मज़ेदार तरीक़े से पढ़ाने की कई चीज़े सीखी थी, अब उनकी मदद से नारी गुंजन की बच्चियों को सिखाने की बारी थी। विज्ञान, गणित के डर को दूर भगाने, इसके प्रति उनमें उत्साह जगाने की बारी थी।

जुलाई माह नारी गुंजन (बिहार) में बीता।

नारी गुंजन, नाम से ही लगता कि ये नारियों के हित के लिए एक संस्था है। ताकि इनकी आवाज से गूँज उठे जहां सारा, बने ऐसी नारियां।

बिहार जाने के लिए मैं बिलकुल भी उत्साहित नहीं था। जब सीनियर फेलो ये कहते कि हम नारी गुंजन को बहुत मिस कर रहे है। ये सब सुनकर मुझे लगता कि सीनियर फेल हमारी फिरकी ले रहे हैं क्योंकि 45 डिग्री तापमान को कौन मिस करता होगा?

ये सब सोचकर मैं उदास मन से गंगा के रूप को देखते हुए पटना पहुंचा। वहां की गर्मी का असर था कि तन पसीना पसीना  हो चुका था।

बिहार की राजधानी में अब भी डीज़ल से चलने वाली टैक्सियाँ, सड़क के किनारे चौराहे पर अधनंगे घूमते लोग दिख रहे थे।

अगली सुबह ही हमे नारी गुंजन जाना था। टैक्सी में बैठकर हम तंग रास्तों से गुज़रते हुए दानापुर पहुंचे। लोग, मौसम और रास्ते मेरे राज्य से हूबहू मिल रहे थे। हम दानापुर की उस सड़क तक पहुँच गए, जहाँ से पैदल चलकर उस रहस्यमय जगह पर पहुँचना था। जहाँ मुझे अगले 21 दिन बिताने थे, वो जगह जो मेरे लिए अंजान थी। डर था कि कहीं ये 21 दिन सूरज की तपन को बुरा न बना दे।

सड़क बचपन में देखी सड़कों से मेल खाती। उबड़ खाबड़ जिसमे बीच-बीच में पानी भरा होता, रास्ते में लोगों के झुंड दिखते, तो कुछ बैठ कर आते जाते लोगों को देखा करते। सिर्फ देखना भी अच्छा होता बशर्ते देखने में भौंडापन न हो। एक तरफ ये दृश्य आँखों से होकर गुज़रते तो दूसरी ओर मन में तरह-तरह के प्रश्न आ रहे थे कि कैसा होगा नारी गुंजन?

नारी गुंजन के मुख्य दरवाज़े से पांच कदम पहले एक सरकारी नल लगा था। जिसके आसपास भरपूर कीचड़ लग चुकी थी। आदमी, बूढ़े, कुछ नंगे बच्चे और महिलाएँ जिनमे से कुछ लोग नहाते तो कुछ कपड़े धुलते दिखते। वो नल लोगों से भी ज्यादा व्यस्त था। ये सब देखकर मन नारी गुंजन के अंदर के दृश्य की कल्पना करने लगा। तो अब हम उस दरवाज़े की चौखट पर पहुँच ही गये जिस पर लिखा था ‘नारी गुंजन’

नारी गुंजन, जिसका उद्देश्य समाज के वंचित समुदाय को मुख्य धारा का हिस्सा बनाना है। जैसे मुसहर समुदाय, स्त्रियां, अनाथ बच्चे। मुसहर समुदाय के लोग बिहार, यूपी में निवास करते हैं। इन्हे मुसहर इसलिए कहते क्योंकि इनके पूर्वज मूस (चूहा)  खाना पसन्द करते थे। इन्हें मुख्य धारा का भाग बनाने के लिए नारी गुंजन कई तरह के कार्यक्रम चलाता है। जैसे कि फसल उत्पादन, लघु उद्योग ( गांव की महिलाओं द्वारा सत्तू, बेसन का उत्पादन कर उसे बेचना ), कड़ाई-सिलाई का कौशल सिखाना। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण उनकी बच्चियों को शिक्षित करना। इसके लिए नारी गुंजन छात्रावास सहित स्कूल की स्थापना करना है। ऐसे ही पटना और बोधगया छात्रावास मे आविष्कार का माहौल बनाने का मौक़ा मिला।

नारी गुंजन के प्रति मेरी आशंकाएँ गलत थी। किसी जगह को वहां के लोग ख़ूबसूरत- बदसूरत बनाते है, झरनें, नदी- नालें नहीं। नारी गुंजन की बच्चियां, कर्मचारी, शिक्षक जो खुद सीखना चाह रहे थे। लोगों का खुले दिल से स्वागत करते, उन्हें जगह देते।

पहले ही दिन पद्मश्री सुधा वर्गीस से मिला, जो नारी गुंजन को संचालित करतीं। बच्चों सा चेहरा, उनकी फुर्ती, व्यस्तता देखकर लगता ही नहीं 70 की उम्र है उनकी। वहाँ पहुँचकर पता चला की वो अपने घर केरल को छोड़कर 7 साल की उम्र में नन के रूप में बिहार में रही, पढ़ाई की, और उसी की रह गई। अब 40 साल से यहां के लोगों के लिए काम कर रही हैं। वो एक मसीहा जो निम्न तबके से आये बच्चों को अच्छा माहौल प्रदान करवाती, जो उनके संपूर्ण विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। बच्चों को किताबी कीड़ा बनने से रोकती।)

मेरे कुछ साथियों को उन बच्चों को देखकर दया आती, पर दया का तो विचार ही नहीं उठा मेरे मन में। कितनी मजबूत थीं वों बच्चियां। पूछने पर पता चला कि उनकी सोच समाजिक रिवाजों से परे है। बच्चियाँ अंग्रेजी भी कितनी अच्छी बोलती, हम तो उस उम्र में अंग्रेजों को कोसा करते थे। मन खुद ग्लानि से भर जाता।

शहरियों पर तरस आया।

है नाज़ तुम पर सुधा, जो ऐसा माहौल बनाया….

बच्चों को  विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत लोगों से सीखने को मिलता, कोई शख्श तबले में पारंगत होता तो कोई किसी अन्य विधा में।

कुछ बच्चियां तबला सीखतीं, तो कुछ गीत का रियाज करतीं, रंगोली बनातीं, कराटे करतीं, चित्रकला करतीं तो कुछ कविता लिखतीं।

जब पड़ाई करतीं तो कई दफा ऐसे प्रश्न करतीं की मेरे पास उत्तर ही नहीं होता, अगले दिन खोजकर बताना पड़ता।

इस बात की मुझे ख़ुशी है कि हमने उनके साथ फुटबॉल का अभ्यास किया और बच्चियों ने गर्ल्स फुटबॉल टूर्नामेंट फॉर वूमेन एम्पावरमेंट का ख़िताब भी जीता।

पहला ही दिन उत्साह से भरा था। बच्चे और भी ख़ुश हो जाते जब उन्हें पता चलता कि आविष्कार से कोई आया है। वो आविष्कार के बाकी सदस्यों के हालचाल पूछने लगती। बच्चे इतने उत्साही थे कि वो आए हुए शख्श मे नई उमंग भर देते। अपने रंगों से दूसरों को रंगते।

पहले दिन बच्चों ने हमें सिखाया और हमने उनके बारे में जाना। बच्चियां जुझारू, सीखने की ललक से ओत-प्रोत थी। वो एक संयमित दिनचर्या का पालन करतीं जो उन्हें अंदर से मज़बूत बनाती। तड़के सुबह और शाम को व्यायाम कराने प्रशिक्षक आते। सुबह उन्हें दौड़ लगवाते, शाम को  कराटे सिखाते और शनिवार को उनके बीच प्रतियोगिता करवाते।  सुबह के नाश्ते के बाद वो स्वाध्याय करतीं फिर प्रार्थना करने के बाद अपनी अपनी कक्षाओं में पहुँचती। हर रोज हम सुबह 8:30 बजे तक नारी गुंजन पहुँचते और रात्रि 8:30 पर वापस लौट आते।

हमने वहां गणित, विज्ञान के कैंप किये, जिसे ब्रिज कैंप कहते है और उनके पाठ्यक्रम के नए पाठों को सिखाया। ब्रिज मतलब पुल, जो समारोह बच्चों को वास्तविक गणित तक पहुँचाने में पुल की भूमिका निभाए। हमारा उद्देश्य उन्हें वास्तविक गणित से रूबरू करवाना होता, ताकि वो गणित को महसूस कर सके।

इस कैंप में गणित के ये पाठ उन्हें महसूस (लिख-कर और दिमागी तौर पर भी) कर पाना सिखाते। इसमें हम उन्हें जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग, भिन्न सिखाते।

ब्रिज कैंप का हिस्सा माध्यमिक कक्षा के 30, 40 बच्चे होते है, जिनके साथ आविष्कार टीम सात दिन पूरी तरह जुडी रहती।

हर दिन 5 घंटे उन्हें सिखाते, पढ़ाते नहीं! पांच घंटे बच्चो को पढ़ाना आसान काम हो सकता है, बशर्ते वो बच्चो पर केंद्रित न हो। इसलिए हम उन्हें ध्यान में रखकर योजनाए बनाते।

गणित सिखाने के साथ साथ उन्हें हर दिन ऐसे खेल करवाते जो उनके दिमाग को आराम पहुंचाये, आनन्द दिलाये और उन्हें दोबारा नए उत्साह से सीखने मे मदद करे। शुरूआती दो -तीन दिन हमें बच्चों को समझने में गुजरते, फिर हर एक बच्चे को ध्यान में रखकर हमारी टीम के सदस्य अपनी भूमिका निभाते।  इस दौरान हम हर एक बच्चे से जुड़ने की कोशिश करते।

आविष्कार में आकर एक बात मैंने सीखी कि कोई भी बच्चा कमज़ोर नहीं होता, हमारा सिखाने का तरीक़ा कमज़ोर होता है जिससे बच्चा सीख नहीं पाता या ग़लत सीखता है। जैसे हम सीखते आएं हैं, और करोड़ों अब भी पड़ रहे हैं। सोचना मायने रखता है, उत्तर ग़लत कभी नहीं होता। सभी उत्तर सही होते है, बस नज़रिया अलग होता है।

 

इन कैंप के दौरान वो बच्चे भी जिन्हें बाक़ी लोग कमज़ोर कहते, काफी अच्छा प्रदर्शन करते। क्योंकि अधिकतर लोग यह कह कर कि यह बच्चा कमज़ोर है, उसे कुछ भी करने से रोकते। बच्चे जो गुपचुप, चुपचाप बैठे रहते या जो समझने की कोशिश ही नहीं करते क्योंकि डर होता कि नकार दिए जाएंगे। ऐसे बच्चे भी कुछ ही दिन मे जब खुद करने की शुरुआत करते और उठकर बताने की कोशिश करते तो उनमें ये परिवर्तन देख कर बहुत अच्छा लगता।

कैंप के अंत तक बच्चों और हमारे बीच अच्छी दोस्ती हो गई।

इस कैंप के दौरान ही हम बारी बारी से समय निकालकर दूसरी कक्षाओं में जाते और कैंप के आखिरी दिन होने वाले गणित, विज्ञान मेला (fair) की तैयारी करते।

मेला जो खुशी का प्रतीक होता है। जिसमें लोग आते हैं, मस्ती करते हैं और कुछ सामान ख़रीदकर ले जाते हैं। इस मेले में भी लोग आते हैं, शिक्षक आते हैं, बच्चे आते हैं, दूसरे स्कूलों के बच्चे आतें हैं। पर वो यहां सामान नहीं ख़रीदते बल्कि मस्ती करते हुए अपना समय देते हैं और बदले में कुछ विज्ञान गणित की बातें अपने साथ ले जाते हैं।

इस मेले में अलग-अलग स्टाल लगे होते और कुछ बच्चे अपने-अपने विज्ञान, गणित के उपकरण स्टाल पर लगाते। लोग आते, उस उपकरण के साथ खेलते, सोचते, फिर उस बच्चे से प्रश्न पूछते। कुछ बच्चे वहां पर क़ाफी अच्छे से समझाते। यह मेला उन्हें अपने विचार ठीक से व्यक्त करने में भी सहायता करता।

 

बिहार याद रहेगा हमेशा, बहुत कुछ सीखनेसिखाने और समझाने के लिए।

याद रहेंगी बच्चियां जो मज़बूत थीं, जिनमें थी लौ बदलाव की।