मेरी आविष्कारकों की नगरी आविष्कार की यात्रा की शुरुआत दिल्ली से निकलकर हिमाचल के एक गांव कंबाड़ी से होती हैं। शुरुआती पहले हफ्ते में एक कैम्प आयोजित था जिसका नाम पाई-सफारी था। जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं गणितीय समझ के विकास को प्रोहत्साहन तथा मंचन विभन्न प्रकार की क्रियाओं प्रयोगों द्वारा किया जा रहा था। यहीं पर मेरी मुलाक़ात छोटू से पहली बार होती हैं। छोटू बड़ा ही साधारण सा मालूम पड़ता हैं मगर हैं बड़ा ही असाधारण। इस प्रकृति में फैले कण-कण (छोटू) के बारे में मैं जब जान रहा था तब अनुभूत होता है इस नगरी में मैं जहाँ अचानक से मैं आ पहुँचा हूँ। यहां का वातावरण ऐसा निकलेगा जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। पुष्टि के लिए मैंने अपनी आँखें भी मींजी, यकीन भी हो गया था। प्रत्येक दिन विज्ञान एवं गणितीय सोच को अपने अंदर की प्रकृति में महसूस करते हुए एक माह बीतता है। और अब बारी थी जो पाया है, जो छोटू के बारे में समझा है, जो उसके बारे में सीखा है, उसको आगे देने की, बच्चों को पढ़ाने की।

 

कक्षा में पढ़ाने की प्रक्रिया आरंभ हुई। पढ़ाना बोलना शायद सही नहीं होगा इसलिए कक्षा में सीखने की प्रक्रिया बोलता हूँ। गाड़ी में थे कुछ आधा घण्टे का सफ़र कर रहे होंगे और वो सफर मेरा suffer जैसा था। पढ़ाया तो मैंने पहले भी हैं किंतु वह कक्षा एक तरफा जैसी समझ सकते हैं क्योंकि उसमें शिक्षक ही करके समझाता था मगर आविष्कार की पहल कुछ और ही हैं। यहां शिक्षक का कार्य केवल पढ़ाना न रहकर एक सरलीकृत करने वाला भी हैं। जो बच्चों को एक माहौल प्रदान करें जिसमें वह स्वयं प्रयोगों-अनुप्रयोगों द्वारा तमस को बुझा कर ज्ञान का प्रकाश मन में जला सके तथा यहाँ पढ़ाने से ज़्यादा सोचना और प्रशन पूछने पर ध्यान एवं प्रोहत्साहन दिया जाता हैं।

तो पैर थोड़े कांप रहे थे दिल की धड़कनें बढ़ी हुई थी जैसे-जैसे मैं उस विद्यालय के नजदीक जाता जा रहा था, रास्ता कम होता जा रहा था। परेशानियों में थोड़ा डूबे हुए थे। मन में बेचैनियां भरी हुई थी। फिर बस ध्यान केंद्रित किया अपने ज्ञान पर जो अभी पिछले महीने सीखा हैं, जिसमें कुछ भी नाटकीयता का भाव या ऐसी कोई बात नहीं थी जिसे झुठलाया जा सके क्योंकि इसमें सत्य क्या है, असत्य क्या हैं, इसकी खोज बच्चों को करनी हैं मुझको बस उस सत्य तक पहुँचाने में सहायता करनी हैं। कक्षा में गया जहाँ पर नौवीं और छटवीं कक्षा एक साथ ज़मीन पर दरी बिछाए बैठी हुई थी। हम वहाँ गए नौवीं कक्षा वालों को सातवीं कक्षा में भेज कर अपनी छटवीं कक्षा को पढ़ाने का कार्य शुरू करने में जुट गए।

कक्षा से एक परिचय लेते हुए सबके नाम पूछे और फिर उसके बाद उनके नामों के अर्थ के बारे में पूछते और बतातें हुए एक अपने और कक्षा के बीच ताल मेल या रिश्ता सा कुछ बनाने की कोशिश कर रहा था मैं, जहाँ तक लगता हैं काफी हद तक सफल भी रहा। उसके बाद बातों के सिलसिले से कक्षा अध्यापन की ओर कदम बढ़ाते हुए पूछा,” तुम लोग विद्यालय क्यों आये हो?” तो मुझे पता नहीं था की सब से पढ़े, लिखे और समझदारी वाले जवाब सुनने को मिलेंगे। जवाब कुछ इस प्रकार के,”पढ़ने के लिए सीखने के लिए और किसी ने कहा “नौकरी मिल जाए इसके लिए” ज़वाब सुनकर मैं थोड़ा अचरज में था। सोच रहा था की ये जन्म से जन्मे कलाकार बच्चे, न जाने क्यों अपनी उम्र से पहले ही बड़े हो जाते हैं। खैर मैंने फिर आगे बोला की तुममें से कोई मजे करने नहीं आया क्या? क्योंकि स्कूल तो इसलिए जाते हैं और मजे कर सकें, नए दोस्त बना सकें। इस तरह की बातों को मिल-मिलाकर करते हुए मैं छात्रों को मजे करने के तरीके बता रहा था और फिर शिक्षण पूर्व निर्धारित अपनी पेपर फाड़ने वाली क्रिया पर आ गया (जो कि मेरे आज के शिक्षण का अहम हिस्सा था)।

 

क्रिया कागज़ फाड़ने की प्रक्रिया सही चल रही थी बच्चों को उसका सबसे छोटे अंश का नामकरण करना था जो उन्होंने कर दिया। नाम छोटू और पिद्दु रखा गया। ये छोटू वही हैं जिसे विज्ञान जगत में भयंकर नामों से जाना जाता हैं और भिन्न-भिन्न परिभाषाओं द्वारा परिभाषित करके उसको मॉलिक्यूल या अणु के नाम से संबोधित किया जाता हैं। परन्तु आज इस कक्षा में छात्रों ने उसको अपनी सरल भाषा में नामित कर दिया था। अब नामकरण के बाद थी बारी उसकी प्रकृति के बारे में जानने की। कुछ क्रिया द्वारा पता चला कि अपने छोटू के पास तो दो बड़ी ही आकस्मिक ताकतें हैं। और वो हैं खींचव की और हलचल की। एक छोटू दूसरे छोटू को खींचने की पूरी कोशिश में लगा रहता हैं और वह छोटू हिलता ढुलता भी रहता हैं।

 

मैं छात्रों को विभिन्न प्रकार के छोटुओं के बारे में बता रहा था और अगरबत्ती द्वारा या कुछ अन्य प्रयोगों द्वारा छोटुओं की कल्पना को हकीकत बना रहा था। छोटू हवा का हो या पानी का उनके बारे में बता ही रहा था तभी मैंने बोला, पानी का सबसे छोटा हिस्सा अर्थात पानी का छोटू “बूंद” हैं? तभी एक छात्रा शगुन ने बोला नहीं सर, बूंद में भी कई छोटू होते हैं। वाह! क्या बात कही। यहाँ तक कुछ-कुछ समझ आया कि बच्चों को छोटू की कुछ-कुछ नहीं बहुत समझ हो गयी हैं। आज दिमाग को ये एहसास भी हुआ कि सबसे ज़्यादा दिल को सुकून तब मिलता हैं जब तुम्हारे पढ़ाए गए पाठ को इस तर्ज तक समझा गया हो। फिर छोटुओं की समझ का कारवां आगे बढ़ता हैं और उनकी दिनचर्या में इस्तेमाल होने वाली सभी वस्तुओं को ब्लैकबोर्ड पर लिख एक सूची बनाकर उनसे एक बार परिचय किया जाता है और किस- किस्म या किस प्रकृति के छोटू हैं उनकी भी बात करी जाती हैं। जिसके बाद उस सूची को एक विशेष क्रम में कैसे व्यवस्थित करना हैं, वह छात्र करने में स्वयं लगे होते हैं। उस दौरान विद्यालय की घण्टी भी बज जाती हैं मगर सभी बच्चों का ठहराव था अपनी जगह पर। क्योंकि अक्सर घण्टी लगने पर सब भागते हैं। मगर जो मेरी आँखों के सामने बच्चे थे वो जैसे कहना चाह रहे हों कि सर और कुछ करके दिखाओ हम पता लगाने की कोशिश करेंगे और छोटू के बारे में जानने की कोशिश करेंगे।

उम्मीद करता हूँ की आने वाले वक़्त में और सीखूंगा और सिखाऊंगा भी।