प्रतिदिन विद्यालय में पाठन-अध्यापन की दिनचर्या ने विद्यालय और हमारे बीच जो रिश्ते की डोर को एक धागे में पिरोया हैं उसने अपने स्नेह की छत से हमको कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया कि विद्यालय हमारा दूसरा घर नहीं हैं। अब जैसे विद्यालय अपना ही घर हो चला हैं और यहां के सभी छात्र एवं शिक्षक गण मिल कर उस घर का, विद्यालय परिवार का एक हिस्सा बन चुके हैं।

 

इस घर में समय बीतता गया और हम बच्चों को नई-नई चीज़ें करवाते गए और खुद भी नई-नई चीज़ सीखते गए। इस सीखने-सिखाने की जगह अपने विद्यालय के बारे में अभी तक तो मैं इतना ही जानता था कि यह मेरा स्पैडू गांव में स्थित विद्यालय जो पालमपुर की एक पहाड़ी पर हैं केवल प्राथमिक शिक्षा तक ही उपलब्ध हैं, यहाँ शिक्षा लेने के बाद सभी बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए दूसरे गांव में जाना पड़ता हैं। जो कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। मुझे सुनकर थोड़ा अचरज हुआ कि शिक्षा के अमृत को चखने के लिए बच्चों को कितना चलना पड़ता होगा । उनका हर कदम संघर्ष की एक नई इमारत को बुनता होगा।

मगर जानने को मिला कि अभी भी उनको अपनी प्राथमिक शिक्षा के लिए काफी चलना पड़ता हैं।  थोड़ी सी जानने की जिज्ञासा उतपन्न हुई कि बच्चे कहाँ-कहाँ और किस गाँव से आते होंगे। हमारी इस जिज्ञासा ने जब पर खोले तो मन में और भी बातें आनी शुरू हो गयी कि यहाँ के लोग कैसे और किस प्रकार से रहते होंगे। इन असीम संभावनाओं का जवाब हमको तलाशने का एक ज़रिया मिला, सामुदायिक दौरा। सोचने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि अगर हमको समाज को समझना हो तो हमको कहाँ और किसके घर जाना चाहिए, हम हमारे छात्रों के घर जा सकते हैं। यह कितना अच्छा भी है किसी अनजान समाज-समुदाय में जल्द ही जगह बनानी हो या उसमें परिवर्तन की लहर लानी हो या फिर प्रगति की रफ्तार बढ़ानी हो, उसको भली-भांति परिचय जानने और करने के लिए कितना सहज और सरल तरीक़ा हैं।

चुनाव किया की सारिका के घर जाएंगे जो पांचवीं कक्षा की छात्रा हैं क्योंकि उसकी दो बहनें और भी हैं जो किसी और कक्षा में उसी स्कूल में पढ़ती हैं। तो एक दोपहर विद्यालय की घंटी बजती हैं सारिका से पूछते हैं आज क्या हम तुम्हारे घर चल सकते हैं क्या? वह बहुत ही उरालता से कहती हैं, “हाँ हाँ-चलो चलो”। हैरान थे हम, बच्चे ने चलने में इतनी उत्सुकता दिखाई। सोचकर बैठे थे कि वह मायूस होगी या घबरा कर बोलेगी, “मैंने ऐसा विद्यालय में क्या कर दिया कि शिक्षक मेरे घर आना चाहते हैं”। पर ऐसा नहीं हुआ और हमने फिर पूछा कि तुम कहाँ से आती हो, जवाब आया रछियाडा से । हमने कहा चलो। फिर उसके घर की ओर चल दिये। लगभग 15 से 20 मिनट पहाड़ की उबड़-खाबड़ पथरीली जमीन पर चलने के बाद उसका घर आया। वह घर तीन भाइयों का था जिनमें से दो भाई चरवाहे थे वह अपना पारम्परिक काम करते थे, भेड़-बकरियों को चलाते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। जिनको मैं सातवीं-आठवीं कक्षा में भूगोल की किताबों में पढ़ा करता था, विचार उस समय भी वही था जो आज आया, कैसे यह लोग घर से दूर साल भर तक इधर से उधर एक शहर की पहाड़ी से दूसरे शहर की पहाड़ी का रास्ता तय करते हैं। वह केवल एक माह के लिए ही घर आते हैं बाक़ी महीने अपने भेड़-बकरियों को पहाड़ियों पर घास चराते हुए शहर गांव दर अपनी भेड़ों को बेचते रहते हैं और उनके ऊन को भी बेचते हैं। जब वह घर आते हैं तब उनके ऊंन को निकाल कर उनसे तरह-तरह की कपड़े और कंबल बनाए जाते हैं। उन्होंने हमको उनसे बने हुए काफी सारे कपड़े दिखाए।

उस आधे घंटे की गप-शप और चाय की चुस्की में छुपी सारी कहानियां बाहर आती गई। कहानी-कहानी में हमको उनके गांव, रहन-सहन जानने को मिला। और उनके घर से जाते जाते उन्होंने अपने चेहरे पर एक मुस्कान लिए कहा चाय पर फिर से ज़रूर आना।

 

इस पूरे एहसास को मैं यदि बयान करना चाहूं तो कुछ इस तरह से कर सकता हूँ

 

घर से निकलकर देखो,

एक जहान ऐसा भी हैं

अपने पड़ोस में जाकर तो देखो,

चाय की चुस्की का मज़ा कुछ और भी हैं।