अपनी कक्षा के बच्चों, विद्यालय, उनके व्यवहार के बारे मे कुछ बातें साझा करना चाहता हूँ। जैसा की पिछले अंक में बताया था कि बच्चे बात सुनते तक नहीं थे, पर अब उनमें बदलाव दिखता है। अब बिहैवियर मैनेजमेंट का असर बच्चों पर दिख रहा है। अब बच्चों को पता है, भैया किस तरीक़े से काम करते हैं, किस बात पर ग़ुस्सा हो जाते है, उन्हें पता है। वह बच्चे बार बार कहने पर भी सुनते नहीं थे, अब कक्षा में मात्र प्रवेश करते ही शांत बैठ जाते हैं। देखकर ख़ुशी होती है। शोर होने पर मेरे बस चुपचाप खड़े हो जाने पर कहने लगते कि हमे पता है कि भैया नाराज़ है, चुप रहो।

यह जानने के लिए कि आज भैया क्या कराएंगे, आवाज आती कि भैया आज क्या लाए हैं, भैया वो वाले डिब्बे लाए हैं ना?

 

उन्हें शुरुआती 5-7 मिनट खेलने में बड़ा अच्छा लगता है। परन्तु मुझे आश्चर्य होता है कि अब वह मुझसे एक बार भी नहीं कहते कि भैया खिलाओ, बस देखते कि भैया क्या कराएँगे? जब कभी खेल नहीं कराता तो वह जिद नहीं करते कि खेल खिलाओ, वह नहीं दूर भागते पढ़ाई से क्योंकि उन्हें पता है कि आगे जो कुछ भी भैया करेंगे उसको करने में भी मजा हि आएगा।

कक्षा में प्रवेश करने के बाद जब कहता कि बीच में आ जाओ, तो वो सब खुशी से दौड़कर आकर एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर छोटा सा गोला बना लेते, पूछते कि भैया आज कौन सा खेल खिलाएंगे?

कक्षा में विविधता है, कोई बहुत बोलता है, कोई बहुत कम बोलता है, कोई चुपचाप होकर अपना काम करता है तो कोई शोर, कोई लड़ाई करता है तो कोई अपने में खोया रहता है। तो कभी सब मिलकर मुझपर हँस लेते।

कभी आपस में झगड़ा करते तो कभी जूते का फीता खुल जाने पर एक दूसरे के फीते बाँध भी देते।

जैसे कि उन्हें जोड़ना सिखाते वक्त मैं बच्चों से पूछता कि कौन बताएगा 15 नंबर को दो नंबर की सहायता से कैसे बनाया जा सकता है?

आवाज़े आतीं कि भैया मैं, भैया मैं…। तो कोई चुपचाप हाथ खड़े करे रहता और कोई चुपचाप बैठा रहता।

पंकज जो अत्यधिक चुलबुला है। कहता, “मुझे तो आता है, भैया मुझसे पूछो।”

“पंकज ने हमारे बनाए नियमों का पालन किया”, मैंने पूछा।

“नहीं। भैया बोलने से पहले हाथ ऊपर नहीं किया”, कनिका ने हाथ ऊपर रखते हुए बोला।

पंकज आप आओ बोर्ड पर लिखो आकर।

5 जमा, 5 जमा, 5.

शिवम् ,”10 जमा 5″। “सात जमा 7”, शान्या।

किसी को दूसरे तरीक़े से लिखना है या फिर कुछ सुधार करना है तो बताओ।

शिवाली, “6 जमा 6 जमा 3″।

“ऐसे नहीं होता है मुझे पता है, भैया आप मुझसे पूछते ही नहीं हो”, पंकज।

“7 जमा 7 जमा 1 होगा”, पंकज।

“भैया मुझे यह नहीं करना है, मुझे धागे वाला दो, या कुछ और दो”, नेहा कहती।

नेहा अधिकतर यही कहती, जब कभी मैं नेहा के लिए अलग से सामान नही ले जाता तो मुझे उसे यही दिलासा देना पड़ता कि बेटा बाक़ी लोग भी यही कर रहें हैं, आप भी कोशिश करो।

ऐसे ही किसी रोज़ एक एक्टिविटी करवा रहा था तो उसमें बच्चों को गिनती गिननी थी नेहा ने फिर यही कहा कि मुझे भैया यह नहीं करना है तो मैंने कहा कोशिश करो। आपको 20 तक गिनती आती है इसलिए आप यह कर लोगे। इस पर उसके बगल वाली बच्ची बोली कि भैया इसको गिनती नहीं आती है इसको मत करवाओ कुछ और दे दो। इस बच्ची की बात में इतना विश्वास था कि जैसे कई दफ़ा ये बात नेहा को बोली जा चुकी है।

इस पर नेहा बोली, “हां भैया, मुझे नहीं आती है”।

ऐसे ही इतने ही बच्चे उपेक्षित कर दिए जाते हैं। मजबूर किए जाते हैं मानसिक रूप से कमज़ोर होने और खुद को कमज़ोर समझने के लिए।

 

उम्र में मेरे स्कूल की अध्यापिका बच्चों के समान है, उनका व्यवहार भी हमारे प्रति अच्छा है।

पर एक ऱोज उनका व्यवहार ठीक नहीं लगा। जब वो नेहा के सामने ही कहने लगीं, “यह कमजोर है, पता नहीं क्या बात है तीन बार कक्षा दोहरा चुकी है। अभी तक यह 20 तक गिनती ही नहीं पहचान पाती”। नेहा की दीदी जो सामने ही बैठी थी, से पूछा गया कि इसको पढ़ाती हो कि नहीं। कहने लगीं कि इसके घर वालों से इतनी बार कहा कि इसे किसी स्पेशल स्कूल में भेजो, पर मां-बाप उसे ख़ुद से दूर ही नहीं करना चाहते हैं।

कक्षा के दौरान मैंने देखा कि वह बच्ची उत्तर जल्दबाजी में देती, कुछ भी बोल देती। जैसे कि जल्दी से छुटकारा पाना चाहती है।

“3 जमा 2 कितने होते हैं”, पूछता।

वो बोलती, “7”।

नहीं, सोच कर बताओ। “भैया 6, नहीं 8…..”, कहती।

इस तरह नंबर पर नंबर बोलती चली जाती और मेरे चेहरे की ओर देखती कि भैया कब पूछना बंद करेंगे?

पर जब ज़ोर देकर कहता कि ऐसे नहीं सोच कर बताओ। फिर पूछता कि आपको हमने तीन टोपियाँ दी फिर दो और दी तो आपके पास अब कुल कितनी टोपियाँ हो गई। तब बता देती कि पाँच।

नेहा एक दिन अपनी कॉपी मे 1 से 100 तक लिखी गिनतियों को दिखाते हुए बोली कि ये मेरी माँ ने लिखाई है। कक्षा की अध्यापक भी समय समय पर छुटपुट गिनतियों का अभ्यास उसे उसकी कॉपी मे करवाती रहती हैं।

5 सितंबर को विद्यालय में छोटा सा कार्यक्रम था, बच्चों ने तरह तरह की प्रस्तुतियां दी। उस दिन नेहा बहुत खुश थी, झूम रही थी गानों पर। उस खुशी मे वो दुसरे छोटे बच्चों को दुलारती। हो सकता है वो किसी अन्य काम को बेहतर तरीक़े से कर सकती हो, डाँस, खेल,……….

हमें अध्यापक, बच्चों के साथ अच्छे संबंधों के साथ-साथ बच्चों के अभिभावकों से भी मिलना होता है। जिससे कि बच्चे के विकास में और भी योगदान दे सकें।

इस तरह मैं अपनी इस फ़ेलोशिप के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँचा हूँ कि बच्चों के घर जाया जाए, अब बस नेहा के अभिभावकों से मिलने की देरी है।

उम्मीद करता हूँ मैं नेहा को इस मुश्किल दौर से बाहर निकाल पाउँगा..